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प्रिंस सिन्हा संपादक

देश में ट्रांसजेंडर, समलैंगिक लोगों और महिला यौनकर्मियों को रक्‍तदान निषेध की श्रेणी में रखा गया है. उन्‍हें इस श्रेणी से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. इस पर केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने हलफनामा दायर कर सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ये सभी लोग एचआईवी के लिए ‘जोखिम में’ श्रेणी में आते हैं. केंद्र ने कहा कि इनको वैज्ञानिक तथ्‍यों के आधार पर रक्‍दान करने की मनाही है. यही नहीं, ये सभी हेपेटाइटिस बी या सी संक्रमण के लिए भी ‘जोखिम में’ श्रेणी में आते हैं. केंद्र सरकार की ये प्रतिक्रिया ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्य थंगजाम सिंह के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के बाद आई है.

याची थंगजाम सिंह ने ‘रक्तदाता चयन और रक्तदाता के लिए दिशानिर्देश’ की धारा-12 व 51 के तहत समलैंगिक व ट्रांसजेंडर लोगों के रक्तदान करने पर लगी रोक हटाने की मांग की है. ये दिशानिर्देश नेशनल ब्‍लड ट्रांसफ्यूज़न काउंसिल और नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन की ओर से 11 अक्‍टूबर 2017 को जारी किए गए थे. एनबीटीसी की गवर्निंग बॉडी ने 1 जून, 2017 को अपनी 26वीं बैठक में ब्‍लड ट्रांसफ्यूज़न सर्विस लाने के लिए इन दिशानिर्देशों को मंजूरी दी, जो जरूरतमंद लोगों को ब्‍लड और ब्‍लड कंपोनेंट्स की सुरक्षित, पर्याप्त व समय पर आपूर्ति प्रदान करती है.

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क्या कहती हैं 2017 की ये गाइडलाइंस?
दिशानिर्देशों को ‘सबसे कम जोखिम वाले दाताओं’ से दान सुनिश्चित करने के लिए ब्‍लड ट्रांसफ्यूज़न सर्विसेस में सबसे बेहतरीन व्‍यवस्‍था को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था. मौजूदा मामले में दिशानिर्देशों के क्‍लॉज 12 और 51 को संविधान के अनुच्छेद-14, 15 और 21 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी जा रही है. याचिका में कहा गया है कि ये नियम ट्रांसजेंडर, पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों और महिला यौनकर्मियों को रक्तदाताओं से बाहर कर रहे हैं. क्‍लॉज-12 रक्‍तदाता चयन मानदंड के तहत आता है. ये अनिवार्य करता है कि रक्‍तदाता एचआईवी, हेपेटाइटिस बी या सी के लिए जोखिम की श्रेणी में ना आता हो. ये क्‍लॉज रक्‍तदाताओं को कई दूसरी बीमारियां होने पर भी रक्‍तदान से रोकता है.

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एनबीटीसी के दिशानिर्देश कुछ लोगों को रक्‍तदान से रोकते हैं.

क्‍लॉज-12 में किसे रक्‍दान की अनुमति?
क्‍लॉज-12 में निर्देश दिया गया है कि समलैंगिक, महिला यौनकर्मी और ट्रांसजेंडर के साथ ही नशीली दवाएं लेने वाले, कई यौन साथी रखने वाले या किसी दूसरी हाई रिस्‍क बीमारी से ग्रसित लोग किसी भी हालत में रक्‍तदान नहीं कर सकते. हालांकि, विशेष परिस्थितियों में अगर ये किसी क्‍वालीफाइड डॉक्‍टर का फिटनेस सर्टिफिकेट पेश कर देते हैं तो इन्‍हें रक्‍तदान की अनुमति दी जा सकती है. क्लॉज 15 समलैंगिक और ट्रांसजेंडर समेत ‘एचआईवी संक्रमण के जोखिम में’ की श्रेणी में आने वालों को रक्तदान करने से स्थायी रूप से रोकता है. इन्‍हें कभी भी रक्तदान करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

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क्‍या है दायर जनहित याचिका का आधार?
वर्तमान जनहित याचिका में कहा गया है कि ट्रांसजेंडर और समलैंगिक व्यक्तियों को रक्तदान करने से रोकने वाले 2017 के दिशानिर्देश संविधान के खिलाफ हैं. किसी की लैंगिक पहचान और सेक्‍सुअल ओरिएंटेशन के आधार पर इस तरह का बहिष्कार पूरी तरह से मनमाना, अनुचित, भेदभावपूर्ण और अवैज्ञानिक है. दलील में कहा गया है कि एड्स/एचआईवी, हेपेटाइटिस सी और बी जैसे संक्रामक रोगों के लिए रक्त का परीक्षण किया जाता है. व्यक्तियों को उनकी यौन वरीयता के आधार पर स्थायी रूप से बाहर करना उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन है. याचिका में कहा गया है कि कोविड-19 के दौरान बहुत से लोगों को रक्त की जरूरत थी, जो अपने ट्रांस रिश्तेदारों या प्रियजनों से नहीं ले सके. ये सुप्रीम कोर्ट के नवतेज जौहर और नालसा मामले में दिए आदेश का भी उल्‍लंघन है.

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर दिशानिर्देशों को सही ठहराया है.

नालसा-नवतेज मामलों में क्‍या था आदेश?
सुप्रीम कोर्ट ने ‘नालसा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ (2014) और ‘नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ (2018) में जेंडर और सेक्‍सुअल ओरिएंटेशन आधारित भेदभाव को अनुच्छेद 15 के तहत रखा था. ‘नालसा’ केस में उच्‍चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 15 और 16 के तहत लिंग के आधार पर भेदभाव में सेक्‍सुअल ओरिएंटेशन के आधार पर भेदभाव भी शामिल होगा. अदालत ने कहा, ‘लिंग पहचान हमारे विचार में सेक्स का एक अभिन्‍न अंग है. लिंग पहचान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है, जिसमें तीसरे लिंग के रूप में पहचान करने वाले भी शामिल हैं. वहीं, नवतेज सिंह मामले में अदालत ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को अपराधी नहीं माना जा सकता है. साथ ही आईपीसी की धारा 377 को संविधान के अनुच्‍छेद-14, 15, 19 और 21 का उल्‍लंघन बताया. ये धारा समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखती थी.

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सरकार का नियमों के पक्ष में क्‍या है तर्क?
सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में सरकार ने कहा है कि रक्तदान से ट्रांसजेंडर और समलैंगिकों को बाहर रखने का आधार वैज्ञानिक साक्ष्‍य हैं. पर्याप्त सबूत हैं कि ट्रांसजेंडर, होमोसुक्‍सुअल और महिला यौनकर्मियों को एचआईवी, हेपेटाइटिस बी या सी संक्रमण का सबसे ज्‍यादा खतरा रहता है. यही नहीं, हलफनामा में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाओं जैसे इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ तथा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एसटीडी एंड एड्स के शोध का हवाला भी दिया गया है. इसके अलावा केंद्र ने स्वास्थ्य व परिवार कल्याण विभाग (साल 2020-2021) की वार्षिक रिपोर्ट का भी हवाला दिया है.

क्‍या बाकी दुनिया में भी लगे हैं प्रतिबंध?
हलफनामे में ये भी तर्क दिया गया है कि एचआईवी और अन्य ट्रांसफ्यूजन ट्रांसमिटेड संक्रमणों के उच्च प्रसार वाले जनसंख्या समूहों के संबंध में रक्तदाताओं के लिए प्रतिबंध दुनियाभर में हैं. ज्‍यादातर यूरोपीय देश स्थायी रूप से यौन सक्रिय एमएसएम को रक्तदान करने से रोकते हैं. रक्‍तदान से पहले टेस्‍ट के तर्क पर केंद्र ने कहा कि न्‍यूक्लियक एसिड टेस्‍ट जैसा सबसे अच्‍छा परीक्षण भी इन बीमारियों को डिटेक्‍ट करने में नाकाम हो सकता है क्‍योंकि संक्रमण होने के बाद टेस्‍ट में डिटेक्‍ट होने की अवधि में कई बार काफी अंतर होता है. लिहाजा, इस टेस्‍ट की सीमाएं हैं. ऐसे मुद्दे कार्यपालिका के दायरे में आते हैं. इसे व्यक्तिगत अधिकारों के बजाय सार्वजनिक स्वास्थ्य के नजरिये से देखा जाना चाहिए. प्राप्तकर्ता का सुरक्षित रक्त पाने का अधिकार किसी व्यक्ति के रक्तदान के अधिकार से कहीं अधिक है.

Tags: Blood Donation, Homosexual Relation, Modi government, Supreme court of india, Transgender

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Author: Prince Sinha

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